Tuesday 30 April 2013

आँख में जो किरकिरी बनकर खाले है । 
बेहया   की  पौध  से  फूले -  फले    है  । 

जिन्दगी  की  तल्ख़  सच्चाई  कहेंगे । 
जो   अँधेरे   इन  चरागों  के  तले  है । 

ये  बुलंदी  बर्फ  की  मीनार  सी  है  । 
लोग  धोखा  खा  गए  कितने  भले है । 

घोल  कर  पी जायेगा  उनको  ज़माना । 
इस सदी  में जो कि  मिसरी के  डले  है । 

किस कदर बदशक्ल थी नजदीकियां वे । 
और  कितने  खूबसूरत  फासले   है । 

वे  मुझे   विषदंश  देंगे जानता हूँ । 
क्योंकि मेरी आस्तीनों में पले हैं | 

चन्द्रमा पैर पाँव रखती इस सदी में । 
पस्त क्यों इंसानियत के हौसले है । 

आप पर  उपदेश  में बेहद कुशल हैं । 
होम करते हाथ ये अपने जले है । 

------- प्रो. विद्या सागर वर्मा 

2 comments:

  1. वाह...श्रीमान, बड़ा ही बेबाक अन्दाज है शायरी का..." जिन्दगी की तल्ख़ सच्चाई कहेंगे ।
    जो अँधेरे इन चरागों के तले है ।"
    " घोल कर पी जायेगा उनको ज़माना ।
    इस सदी में जो कि मिसरी के डले है ।"
    खास तौर से ये दो मिसरे लाजवाब हैं...गजब पढ़वाने का शुक्रिया....!

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  2. श्रीमान जी ,,,मेरी कविताओं के नये नवेले ब्लॉग "मुख्तसर" पर भी गौर फरमाइये ...आपके मार्गदर्शन का आकांक्षी हूँ...
    shuklaabhishek147.blogspot.com/?m=0

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